३ सितंबर, १९५८

 

      मधुर मां, उस दिन आपने मुझे बताया था कि कल्पनाको नियंत्रित करना सीखना जरूरी है ।

 

हां

 

     यह कैसे किया जाता है?

 

जो अस्पष्ट रूपसे ''कल्पना'' कहलाती है, वह कल्पना बड़ी जटिल और बहुविध वस्तु हैं ।

 

    यह मानसिक या किसी ओर क्षेत्रमें पाये जानेवाले रूपोंको देखने, अंकित करने और ध्यान देनेकी क्षमता है । कालके क्षेत्र, साहित्यके क्षेत्र, कार्यके क्षेत्र, कार्यके क्षेत्र, विज्ञानके क्षेत्र, सभी मनके क्षेत्र है -- बहुत ऊंचे और सूक्ष्म मनके नहीं - उस मनके जो भौतिक मनके ऊपर है और जो, हमारे जाने बिना, अपने-आपको कार्यमें व्यक्त करनेके लिये व्यक्ति- गत मन और सामूहिक मनमें स्वयंको सतत उंडेलता रहता है ।

 

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    कृउछ लोगोंका, एक विशेष क्षमताद्वारा, उन स्तरोंसे संपर्क होता है, वे वहां मिली किसी-न-किसी रचनाको बटोर लेते हैं, उसे अपनी ओर खींचते है और व्यक्त करते है । भिन्न-भिन्न लोगोंमें व्यक्त करनेकी भिन्न-भिन्न क्षमता होती है, पर जिनमें उन स्तरोंकी ओर खुलनेकी, वहां देखनेकी, अपनी ओर उन आकारोंको आकषित करनेकी और उन्हें अभिव्यक्त करने- की क्षमता होती है -- चाहे वह साहित्यमें हा या चित्रकारीमें, संगीतमें हो या कर्ममें या विज्ञानमें -- वे व्यक्त कर सकनेकी अपनी क्षमताके अनुसार चाहे तो असाधारण प्रतिभावान' होते है या फिर सचमुच मेधावी ।

 

   उच्चतर प्रतिभावाले लोग भी है । ये वे लोग हैं जो महत्तर लोकके प्रति, महत्तर शक्तिके प्रति अपनेको रवोल सकते है, जो मानसिक परतोंसे गुजरती हुई, मानव मनमें आकार लेती है और दुनियामें नवीन सत्यों, दार्शनिक प्रणालियों, नूतन आध्यात्मिक शिक्षाओंके रूपमें प्रकाशित होती है, ये उन महान् सत्ताओंके, जो इस धरातलपर जन्म लेती हैं, कर्म और माथ-ही-साथ क्रियाएं है । वह एक कल्पना हुए जिसे ''सत्यकी कल्पना'' कहा जा सकता है ।

 

   ये महत्तर शक्तियां जब पृथ्वीके वायुमंडलमें उतरती हैं तो सजीव, सक्रिय और सबल रूप लेती हैं, धरतीपर फैल जाती हैं और नये युगकी तैयारी करती हैं ।

 

   इन दो तरहकी कल्पनाओंको महत्तर कल्पनाएं कह सकते है ।

 

   और अब हम आते हैं अधिक सामान्य स्तरपर, हर एकके अंदर, कम या अधिक परिमाणमें, अपनी मानसिक क्रियाको रूप देनेकी क्षमता होती है और वह इस रूपका उपयोग चाहे तो अपने साधारण कार्योमें या किसी चीजकी रचना करने या उपलब्धि करनेमें करता है । हम हर घड़ी, हमेशा, बिंबोंकी, आकृतियोंकी सृष्टि करते रहते हैं । हम सदा उन्हें वायुमंडलमें भेजते रहते हैं, जानतेतक नहीं कि हम ऐसा कर रहे हैं - वे घूमने निकल जाती है, एक व्यक्तिसे दूसरेके पास जाती है, साथियोंसे मिलती हैं, कमी-कमी हिल-मिल जाती है, और खुशी-खुशी निभना लेती हैं; कमी-कमी कलह छिड जाता है और लड़ाई शुरू हों जाती है; क्योंकि प्रायः, बहुत बार, इन मानसिक कल्पनाओंमें इच्छा-शक्तिका छोटा-सा तत्व होता है जो अपने-आपको ससिद्ध करनेकी चेष्टा करता है, और तब हर एक अपनी रचनाको भेजनेकी कोशिश करता है ताकि वह काम करे और चीजों वैसा रूप लें जैसा वह चाहता है, और, चूंकि हर एक ऐसा करता है... यह एक व्यापक उलझन पैदा कर देती है । वातावरणमें इन रचनाओं- को देख सकनेके लिये यदि हमारी आंखें खुली हों तो हम आश्चर्यजनक

 

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चीज़ें देखेंगे : मानसिक जगत्की छोटी-छोटी सत्ताओंकी भीड़ -- जो निरंतर वायुमंडलमें उछाली जा रही हैं और जो सदा अपनेको ससिद्ध करनेके लिये सचेष्ट रहती हैं -- युद्धभ्मियां, तरंगें, रेले और पलायन, इन रचनाओंकी एक ही प्रवृत्ति रहती है -- अपने-आपको मूर्त्ति रूप देनेकी, भौतिक रूपसे चरितार्थ करनेकी, और च्किवें अनगिनत है ( धरतीपर इतनी जगह ही नहीं कि उनकी भारी संख्या अभिव्यक्त हो सकें), अतः वे धक्का धक्का करती है, एक-दूसरेको कुहनी मारती है, जिनका उनसे मेल नही बैठता उन्हें धक्के दे देती है, यहांतक कि एक कदम मिलाकर चलती हुई सेना खड़ी कर लेती हैं ताकि वे देश और कालमें मिल सकनेवाली जगह ले सकें ( अनगिनत रचनाओंकी तुलनामें यह बिलकुल छोटी-सी जगह है) ।

 

   अतः, व्यक्तिगत रूपसे जो होता है बह यही है । ऐसे लोग हैं - सभी - जो बिना जाने यह सब करते हैं और एक चीजसे दूसरी चीजपर उछाले जाते है और वे आशा करते है, चाहते है, इच्छा करते हैं, निराश होते हैं, कमी-कमी खुश होते हैं, कभी-कमी हताश, क्योंकि उन चीजोंपर न तो उनका नियंत्रण होता है, न प्रभुत्व । लेकिन बुद्धिमानीका आरंभ है अपने-आपको विचार करते हुए देखना और इस दृश्यको देखना, वातावरणमें इन छोटी-छोटी जीवंत सत्ताओंके, जो व्यक्त होनेकी चेष्टामें हैं, सतत प्रक्षेपणके प्रति सजग होना । यह सब उस मानसिक वायुमंडलसे निकलता है जिसे हम अपने अंदर ढोये फिरते हैं । एक बार यदि हम देख लें और अवलोकन करें तो हम छांटना शुरू कर सकते हैं, यानी, उसे पीछे धकेल दें जो हमारी उच्चतम इच्छा या अभीप्सासे मेल न खाता हों और -सन रचनाओंको ही व्यक्त होने दें जो हमारी प्रगति और प्रकृत विकासमें मदद दे सकें ।

 

    यह है सक्रिय विचारपर नियंत्रण, और उस दिन मेरे कहनेका यही अभिप्राय था ।

 

   कितनी ही बार हम बैठते हैं ओर हमें भान होता है कि विचार आकार बनाना शुरू कर रहा है, अपने-आपको कहानी सुना रहा है; और तब, जब हम जरा भी पटु हो जाते हैं, तो न केवल हम कहानीका उस रूपमें खिलना देखते हैं जैसे हम जीवनमें, अपने जीवनमें उसे देखना चाहेंगी, वरन् हम एक चीजको काट सकते हैं, कुछ विस्तार जोड़ सकते है, अपनी कृतिमें पूर्णता ला सकते हैं, एक सुंदर-सी कहानी रच सकते है जहां सब कुछ हमारी उच्चतम अभीप्सासे मेल खाता हुआ होगा । ओर एक बार जब हम सामंजस्यपूर्ण, पूरा-पूरा निर्माण कर लें, उतना परिपूर्ण जितना हमसे बन पड़े, ते'। हम अपना हाथ खोल देते है और पंछीको उड़ जाने देते है ।

 

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यदि यह अच्छी तरह बनाया गया हों ते। हमेशा चरितार्थ हाकर रहता है । यही हम नहीं जानते ।

 

     लेकिन इसकी परिपूर्ति धीरे-धीरे होती है, कमी-कभी बहुत देर बाद, जब व्यक्ति अपनी कहानी मुल चुकता है, उसे याद नहीं आता कि उसने यह कहानी अपने-आपको सुनायी थी -- वह बहुत बदल गया है, अन्य चीजोंके बारेमें सोचता है, दूसरी कहानियां रुचता है, और अब पहलेकी कहानीमें रस नहीं. रहता; ओर यदि वह काफी जागरूक नही है तो जब उस पहली कहानी- का परिणाम आता है तो वह पहले ही उससे बहुत दूर होता है ओर उसे अव बिलकुल याद नहीं होता कि यह उसकी अपनी कहानीका परिणाम है... । इमाःनये आत्म-संयम इतना महत्त्वपूर्ण है क्योंकि यदि तुम्हारे भीतर बहु- विष ओर विरोधी इच्छाएं हों -- केवल इच्छाएं हीं नहीं, झुकाव, दिशा देखनेवाले ओर जीवनके स्तर हों -- ते। ये सब तुम्हारे जीवनमें युद्ध खड़ा कर देते है । उदाहरणके लिये, अपने उच्चतम स्तरपर रहते हुए तुमने एक सुन्दर कहानी गाढ़ी जिसे तुम दुनियामें भेज देते हों, लेकिन इसके बाद, शायद अगले दिन, शायद उसी दिन, शायद थोडी देर बाद ही तुम काफी नीचे भौतिक स्तरपर उतर आये और ऊपरकी ये चीजे तुम्हें कुछ-कुछ... परी-कथा जैसी, अवास्तविक लगती है; ओर तुम बहुत ठोस, बहुत उपयोगितावादी रचनाएं बनाने लगते हों जो हमेशा बहुत सुन्दर नही होती... । और वे भी चली जाती हैं ।

 

    मैं ऐसे लोगोंको जानती हू जिनके स्वभावमें इतने विपरीत, विरोधी पक्ष हाते हे कि एक दिन तो वे शानदार, उज्ज्वल, बलवान्, स्वयंको चरितार्थ कर सकनेवाली रचना बना सकते है और अगले दिन, पराजयवादी, अंधकारमय, काली रचना - निराशाकी रचना ओर फिर दोनों-की-दोनों आगे बढ़ जाती है । और मैं परिस्थितियोंके दौरान सुन्दर संरचनाको चरितार्थ हाते देख रही थी ओर जब वह चरितार्थ हों रही थी तभी अंधेरी रचना उस सबको ढा रही थी जो पहलीने बनाया था । ओर यह जैसे जीवनके छोटे ब्योरोंमें होता है वैसे ही महान् क्षेत्रोंमें भी होता है । ओर यह सब इसलिये कि व्यक्ति सोचते हुए अपनेपर निगरानी नही रखता, क्योंकि वह अपने-आपको इन विरोधी गतियोंका गुलाम मान लेता है, क्योंकि वह कहता है : ' 'ओह! आज ते-। मेरी तबीयत ठीक नहीं है; आह! आज तो सब कुछ उदास-उदास लग रहा है,'' और वह यह बात इस तरह कहता है मानों यह अवश्यंभावी विपदा हा जिसके विरुद्ध कोई कुछ नहीं कर सकता । पर कोई यदि एक कदम पीछे हट- कर खड़ा हों या जरा ऊपर चढ़ जाय तो वह इन सब चीजोंपर नजरडाल सकता है, उन्हें यथास्थान रख सकता है, कुछको रख सकता है, अवांछनीय चीजोंको नष्ट कर सकता है या उनसे पिंड छुडा सकता है और अपनी सारी कल्पना-शक्तिको (जो कल्पनाशील कहलाती है) केवल- उसके लिये लगा सकता है जो उसे चाहिये, था उसकी उच्चतम अभीप्सा- के साथ मेल खाती हों । मैं इसे ही कल्पनाका संयम कहती हू ।

 

   यह बड़ा रोचक है । जब कोई इसे करना सीख लेता है और: निर्यात रूपसे करता है ते। उसके पास ऊबनेके लिये समय नहीं रह जाता ।

 

  और व्यक्ति समुद्रकी लहरोंपर तैरते, निरुपाय भावसे हर लहरके थपेड़ा खाते, इधर-उधर नाचते कर्मके समान न रहकर एक पंछी बन जाता है जो अपने पंख खोलता है, लहरोंके ऊपर उड़ान भरता है और जहां चाहे चला जाता है । बस ।

 

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